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शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन्भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śunaṁ huvema maghavānam indram asmin bhare nṛtamaṁ vājasātau | śṛṇvantam ugram ūtaye samatsu ghnantaṁ vṛtrāṇi saṁjitaṁ dhanānām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शु॒नम्। हु॒वे॒म॒। म॒घवा॑नम्। इन्द्र॑म्। अ॒स्मिन्। भरे॑। नृऽत॑मम्। वाज॑ऽसातौ। शृ॒ण्वन्त॑म्। उ॒ग्रम्। ऊ॒तये॑। स॒मत्ऽसु॑। घ्नन्त॑म्। वृ॒त्राणि॑। स॒म्ऽजित॑म्। धना॑नाम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:31» मन्त्र:22 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:8» मन्त्र:7 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:22


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब कौन विजयी होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे वीर पुरुषो ! जैसे हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (वृत्राणि) मेघों के अवयवों को सूर्य्य के समान (अस्मिन्) इस वर्त्तमान (भरे) पुष्ट करने के योग्य (वाजसातौ) अन्न आदि के विभागकारक संग्राम में (धनानाम्) धनों के (सञ्जितम्) उत्तम प्रकार जीतनेवाले (नृतमम्) अतिप्रधान (समत्सु) संग्रामों में (घ्नन्तम्) नाश करते और (शृण्वन्तम्) सुनते हुए (उग्रम्) तेजस्वी (शुनम्) वृद्धिकर्त्ता (मघवानम्) अत्यन्त धन से युक्त (इन्द्रम्) शत्रुओं के विदारनेवाले का (हुवेम) स्वीकार वा प्रशंसा करें, वैसे इस पुरुष का आप लोग भी आह्वान करें ॥२२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। उन्हीं लोगों का निश्चय विजय होता है कि जिनके अत्यन्त धन बलयुक्त और सब वचनों के सुननेवाले श्रेष्ठ पुरुष जो कि संग्रामों में शत्रुओं के मारने जीतनेवाले हों ॥२२॥ इस मन्त्र में अग्नि, विद्वान्, राजा की सेना, मित्र, वाणी, उपदेशकर्त्ता और प्रजा के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इक्तीसवाँ सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ के विजयिनो भवन्तीत्याह।

अन्वय:

हे वीरा यथा वयमूतये सूर्य्यो वृत्राणीवाऽस्मिन् भरे वाजसातौ धनानां सञ्जितं नृतमं समत्सु घ्नन्तं शृण्वन्तमुग्रं शुनं मघवानमिन्द्रं हुवेम तथैतं यूयमप्याह्वयत ॥२२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शुनम्) वर्धकम् (हुवेम) स्वीकुर्याम प्रशंसेम (मघवानम्) परमधनयुक्तम् (इन्द्रम्) शत्रूणां विदारितारम् (अस्मिन्) वर्त्तमाने (भरे) भरणीये (नृतमम्) अतिशयेन नायकम् (वाजसातौ) अन्नादिविभाजके सङ्ग्रामे (शृण्वन्तम्) (उग्रम्) तेजस्विनम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (समत्सु) सङ्ग्रामेषु (घ्नन्तम्) नाशयन्तम् (वृत्राणि) मेघावयवानिव (सञ्जितम्) सम्यग्जयशीलम् (धनानाम्) ॥२२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। तेषामेव ध्रुवो विजयो येषां पुष्कलधनबलाः सर्वेषां कथन श्रोतारो नरोत्तमा युद्धेषु शत्रूणां हन्तारो विजयमानाः स्युरिति ॥२२॥ अत्र वह्निविद्वद्राजसेनामित्रवागुपदेशकप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकाधिकत्रिंशत्तमं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्यांचे धन व बल अमाप असते व जे नरश्रेष्ठ सर्वांचे वचन ऐकतात, युद्धात शत्रूंचे हनन करून त्यांना जिंकतात त्याच लोकांचा निश्चित विजय होतो. ॥ २२ ॥